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आदह॑ स्व॒धामनु॒ पुन॑र्गर्भ॒त्वमे॑रि॒रे। दधा॑ना॒ नाम॑ य॒ज्ञिय॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ād aha svadhām anu punar garbhatvam erire | dadhānā nāma yajñiyam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आत्। अह॑। स्व॒धाम्। अनु॑। पुनः॑। ग॒र्भ॒ऽत्वम् आ॒ऽई॒रि॒रे। दधा॑नाः। नाम॑। य॒ज्ञिय॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:6» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:11» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अगले मन्त्र में वायु के कर्मों का उपदेश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे मरुतः वायु (नाम) जल और (यज्ञियम्) यज्ञ के योग्य देश को (दधानाः) सब पदार्थों को धारण किये हुए (पुनः) फिर-फिर (स्वधामनु) जलों में (गर्भत्वम्) उनके समूहरूपी गर्भ को (एरिरे) सब प्रकार से प्राप्त होते कम्पाते, वैसे (आत्) उसके उपरान्त वर्षा करते हैं, ऐसे ही वार-वार जलों को चढ़ाते वर्षाते हैं॥४॥
भावार्थभाषाः - जो जल सूर्य्य वा अग्नि के संयोग से छोटा-छोटा हो जाता है, उसको धारण कर और मेघ के आकार को बना के वायु ही उसे फिर-फिर वर्षाता है, उसी से सब का पालन और सब को सुख होता है।इसके पीछे वायु अपने स्वभाव के अनुकूल बालक के स्वरूप में बन गये और अपना नाम पवित्र रख लिया। देखिये मोक्षमूलर साहब का किया अर्थ मन्त्रार्थ से विरुद्ध है, क्योंकि इस मन्त्र में बालक बनना और अपना पवन नाम रखना, यह बात ही नहीं है। यहाँ इन्द्र नामवाले वायु का ही ग्रहण है, अन्य किसी का नहीं॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मरुतां कर्मोपदिश्यते।

अन्वय:

यथा मरुतो यज्ञियं नाम दधानाः सन्तो यदा स्वधामन्वप्सु पुनर्गर्भत्वमेरिरे, तथा आत् अनन्तरं वृष्टिं कृत्वा पुनर्जलानामहेति विनिग्रहं कुर्वन्ति॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आत्) आनन्तर्य्यार्थे (अह) विनिग्रहार्थे। अह इति विनिग्रहार्थीयः। (निरु०१.५) (स्वधाम्) उदकम्। स्वधेत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (अनु) वीप्सायाम् (पुनः) पश्चात् (गर्भत्वम्) गर्भस्याधिकरणा वाक् तस्या भावस्तत् (एरिरे) समन्तात् प्राप्नुवन्तः। ईर गतौ कम्पने चेत्यस्यामन्त्र इति प्रतिषेधादामोऽभावे प्रयोगः। (दधानाः) सर्वधारकाः (नाम) उदकम्। नामेत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (यज्ञियम्) यज्ञकर्मार्हतीति यज्ञियो देशस्तम्। तत्कर्मार्हतीत्युपसंख्यानम्। (अष्टा०५.१.७१) इति वार्तिकेन घः प्रत्ययः॥४॥
भावार्थभाषाः - यज्जलं सूर्य्याग्निभ्यां लघुत्वं प्राप्य कणीभूतं जायते, तद्धारणं घनाकारं कृत्वा मरुत एव वर्षयन्ति, तेन सर्वपालनं सुखं च जायते। ‘तदनन्तरं मरुतः स्वस्वभावानुकूल्येन बालकाकृतयो जाताः। यैः स्वकीयं शुद्धं नाम रक्षितम्।’ इति मोक्षमूलरोक्तिः प्रणाय्यास्ति। कस्मात्, न खल्वत्र बालकाकृतिशुद्धनामरक्षणयोरविद्यमानत्वेनेन्द्रसंज्ञिकानां मरुतां सकाशादन्यार्थस्य ग्रहणं सम्भवत्यतः॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे जल सूर्याग्नीच्या संयोगाने सूक्ष्म सूक्ष्म होत जाते. त्यांना धारण करून मेघाच्या आकाराचे बनवितो व त्यानंतर पुन्हा त्यांची वृष्टी वायूच करवितो त्यामुळेच सर्वांचे पालन होते व सुख लाभते.
टिप्पणी: ‘त्यानंतर वायू आपल्या स्वभावाच्या अनुकूल बालकाच्या स्वरूपात आले व आपले नाव पवित्र ठेवले. ’ मोक्षमूलर साहेबांचा हा अर्थ मंत्रार्थाच्या विरुद्ध आहे. कारण या मंत्रात बालक बनणे व आपले नाव पवन ठेवणे ही गोष्टच नाही. येथे इंद्र नाव वायूचेच स्वीकारलेले आहे, इतर कोणते नाही. ॥ ४ ॥